हनुमानगढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
"पारसमणि" में मेरी बालकविता
"पाठशाला"
का राजस्थानी में अनुवाद प्रकाशित हुआ है।
अनुवादक है पं. दीनदयाल शर्मा।

"हँसता गाता बचपन" से
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बालकविता
"सूअर का बच्चा"
गोरा-चिट्टा कितना अच्छा।
लेकिन हूँ सूअर का बच्चा।।
लोग स्वयं को साफ समझते।
लेकिन मुझको गन्दा कहते।।
मेरी बात सुनो इन्सानों।
मत अपने को पावन मानों।।
भरी हुई सबके कोटर में।
तीन किलो गन्दगी उदर में।।
श्रेष्ठ योनि के हे नादानों।
सुनलो धरती के भगवानों।।
तुम मुझको चट कर जाते हो।
खुद को मानव बतलाते हो।।
भेद-भाव मुझको नहीं आता।
मेरा दुनिया भर से नाता।।
ऊपर वाले की है माया।
मुझे मिली है सुन्दर काया।।
साफ सफाई करता बेहतर।
मैं हूँ दुनियाभर का मेहतर।।
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"हँसता गाता बचपन" से
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बालकविता
"झूला झूलें"
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अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से ![]()
माँ को नमन करते हुए!
आज यह बालकविता पोस्ट कर रहा हूँ!
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अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से ![]()
"मैना"
मैं तुमको मैना कहता हूँ,
लेकिन तुम हो गुरगल जैसी। तुम गाती हो कर्कश सुर में, क्या मैना होती है ऐसी??
सुन्दर तन पाया है तुमने,
लेकिन बहुत घमण्डी हो।
नहीं जानती प्रीत-रीत को,
तुम चिड़िया उदण्डी हो।।
जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर,
तुम आगे को बढ़ती हो।
अपनी सखी-सहेली से तुम,
सौतन जैसी लड़ती हो।।
लड़कर मार भगाती हो। प्यारे-प्यारे कबूतरों को भी, तुम बहुत सताती हो।। मीठी बोली से ही तो, मन का उपवन खिलता है। अच्छे-अच्छे कामों से ही, जग में यश मिलता है।। बैर-भाव को तजकर ही तो, अच्छे तुम कहलाओगे। मधुर वचन बोलोगे तो, सबके प्यारे बन जाओगे।। |
अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से ![]()
"खरगोश"
रूई जैसा कोमल-कोमल,
लगता कितना प्यारा है।
बड़े-बड़े कानों वाला,
सुन्दर खरगोश हमारा है।।
बहुत प्यार से मैं इसको,
गोदी में बैठाता हूँ।
बागीचे की हरी घास,
मैं इसको रोज खिलाता हूँ।।
मस्ती में भरकर यह
लम्बी-लम्बी दौड़ लगाता है।
उछल-कूद करता-करता,
जब थोड़ा सा थक जाता है।।
तब यह उपवन की झाड़ी में,
छिप कर कुछ सुस्ताता है।
ताज़ादम हो करके ही,
मेरे आँगन में आता है।।
नित्य-नियम से सुबह-सवेरे,
यह घूमने जाता है।
जल्दी उठने की यह प्राणी,
सीख हमें दे जाता है।।
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