समर्थक

Thursday, May 22, 2014

"ठोकर से छू लो हमें.." (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत सुनिए...

"ठोकर से छू लो हमें.."
अर्चना चावजी के स्वर में
आप इक बार ठोकर से छू लो हमें,
हम कमल हैं चरण-रज से खिल जायेगें!
प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा,
संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!!

फूल और शूल दोनों करें जब नमन,
खूब महकेगा तब जिन्दगी का चमन,
आप इक बार दोगे निमन्त्रण अगर,
दीप खुशियों के जीवन में जल जायेंगे!
प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा,
संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!!

हमने पारस सा समझा सदा आपको,
हिम सा शीतल ही माना है सन्ताप को,
आप नज़रें उठाकर तो देखो जरा,
सारे अनुबन्ध साँचों में ढल जायेंगे!
प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा,
संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!!

झूठा ख़त ही हमें भेज देना कभी,
आजमा कर हमें देख लेना कभी,
साज-संगीत को छेड़ देना जरा,
हम तरन्नुम में भरकर ग़ज़ल गायेंगे!
प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा,
संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!!

Sunday, May 18, 2014

"बालकविता-सूअर का बच्चा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 अपनी बालकृति 
"हँसता गाता बचपन" से
 
बालकविता
"सूअर का बच्चा"
 
गोरा-चिट्टा कितना अच्छा।
लेकिन हूँ सूअर का बच्चा।।

लोग स्वयं को साफ समझते।
लेकिन मुझको गन्दा कहते।।

मेरी बात सुनो इन्सानों।
मत अपने को पावन मानों।।

भरी हुई सबके कोटर में। 
तीन किलो गन्दगी उदर में।।

श्रेष्ठ योनि के हे नादानों।
सुनलो धरती के भगवानों।।

तुम मुझको चट कर जाते हो।
खुद को मानव बतलाते हो।।

भेद-भाव मुझको नहीं आता।
मेरा दुनिया भर से नाता।।

ऊपर वाले की है माया।
मुझे मिली है सुन्दर काया।।

साफ सफाई करता बेहतर।
मैं हूँ दुनियाभर का मेहतर।। 

Wednesday, May 14, 2014

"आओ अब हम झूला झूलें" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 अपनी बालकृति 
"हँसता गाता बचपन" से
 
बालकविता
"झूला झूलें"
आओ अब हम झूला झूलें।
खिड़की-दरवाजों को छू लें।।

मिल-जुलकर हम मौज मनाएँ।
जोर-जोर से गाना गाएँ।।

माँ कहती मत शोर मचाओ।
जल्दी से विद्यालय जाओ।।

मम्मी आज हमारा सण्डे।
सण्डे को होता होलीडे।।

नाहक हमको टोक रही क्यों?
हमें खेल से रही क्यो??

गीत-कहानी तो कहने दो।
थोड़ी देर हमें रहने दो।।

Saturday, May 10, 2014

"माँ को नमन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से
माँ को नमन करते हुए!
आज यह बालकविता पोस्ट कर रहा हूँ!

  • माता के उपकार बहुत,
    वो भाषा हमें बताती है!
    उँगली पकड़ हमारी माता,
    चलना हमें सिखाती है!!
    दुनिया में अस्तित्व हमारा,
    माँ के ही तो कारण है,
    खुद गीले में सोकर,
    वो सूखे में हमें सुलाती है!
    उँगली पकड़ हमारी……..

    देश-काल चाहे जो भी हो,
    माँ ममता की मूरत है,
    धोकर वो मल-मूत्र हमारा,
    पावन हमें बनाती है!
    उँगली पकड़ हमारी……..

    पुत्र कुपुत्र भले हो जायें,
    होती नही कुमाता माँ,
    अपने हिस्से की रोटी,
    बेटों को सदा खिलाती है!
    उँगली पकड़ हमारी……..

    ऋण नही कभी चुका सकता,
    कोई भी जननी माता का,
    माँ का आदर करो सदा,
    यह रचना यही सिखाती है!
    उँगली पकड़ हमारी……

Tuesday, May 6, 2014

"बालकविता-मैना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से
"मैना"
मैं तुमको मैना कहता हूँ,
लेकिन तुम हो गुरगल जैसी।
तुम गाती हो कर्कश सुर में,
क्या मैना होती है ऐसी??


सुन्दर तन पाया है तुमने,
लेकिन बहुत घमण्डी हो।
नहीं जानती प्रीत-रीत को,
तुम चिड़िया उदण्डी हो।।

जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर,
तुम आगे को बढ़ती हो।
अपनी सखी-सहेली से तुम,
सौतन जैसी लड़ती हो।।

भोली-भाली चिड़ियों को तुम,
लड़कर मार भगाती हो।
प्यारे-प्यारे कबूतरों को भी,
तुम बहुत सताती हो।।

मीठी बोली से ही तो,
मन का उपवन खिलता है।
अच्छे-अच्छे कामों से ही,
जग में यश मिलता है।।

बैर-भाव को तजकर ही तो,
अच्छे तुम कहलाओगे।
मधुर वचन बोलोगे तो,
सबके प्यारे बन जाओगे।।

Friday, May 2, 2014

"खरगोश" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अपनी बालकृति
"हँसता गाता बचपन" से
"खरगोश"
रूई जैसा कोमल-कोमल,
लगता कितना प्यारा है।
बड़े-बड़े कानों वाला,
सुन्दर खरगोश हमारा है।।

बहुत प्यार से मैं इसको,
गोदी में बैठाता हूँ।
बागीचे की हरी घास,
मैं इसको रोज खिलाता हूँ।।

मस्ती में भरकर यह
लम्बी-लम्बी दौड़ लगाता है।
उछल-कूद करता-करता,
जब थोड़ा सा थक जाता है।।

तब यह उपवन की झाड़ी में,
छिप कर कुछ सुस्ताता है।
ताज़ादम हो करके ही,
मेरे आँगन में आता है।।

नित्य-नियम से सुबह-सवेरे,
यह घूमने जाता है।
जल्दी उठने की यह प्राणी,
सीख हमें दे जाता है।।